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दिनांक: 21 November 2024, आज का दिन: Thursday , वर्तमान समय: 02:02:49 PM
जय सच्चिदानन्द


सामाजिक विषय - दहेज लेने का क्या औचित्य ?
विवाह की पवित्रता को अक्षुण्ण रखने और उसकी सफलता का पथ प्रशस्त करने के लिए यह आवश्यक है कि उनके मूल स्वरूप एवं दर्शन को अक्षुण्ण बनाए रखा जाए |

परख यकायक पूरी नहीं हो सकती , आदमी के गुण-दोष धीरे-धीरे साथ बसने और रहने पर प्रकट होते हैं |दांपत्य जीवन एक प्रकार से प्रयोगों की तरह चलते रहते हैं |

आरंभिक आकर्षण में उन्माद रहता हैं | पीछे स्वाभाविकता प्रकट होती हैं और असलियत खुलती हैं | विवाह हुआ , आरंभ में बहुत उत्साह | नशा उतरा तो खटपट |
बस, विवाह समाप्त , दोनों ने दूसरे ठिकाने ढूँढे | उसका भी यही क्रम | उसी प्रकार जुड़ते विवाह बंधन वहाँ ऎसे ही प्रयोगात्मक रूप से चलते रहते हैं और जिंदगियाँ ऎसी ही अस्थिर अविश्वस्त वातावरण में व्यतीत हो जाती हैं |

जो भी हो यह एक आधार हैं | भले ही भौतिक सही पर उसमें कुछ वजन हैं , उसके पीछे कुछ तर्क हैं | शरीर और मन की अनुकुलता को विवाह का आधार मानकर नई सभ्यता चल रही हैं |

वो बात किसी सीमा तक समझ में आती हैं | गुण-दोष सही गलत का निष्कर्ष अलग बात हैं , पर सोचने का एक तरीका तो है ही |

भारतीय परंपरा में आत्माओं का मिलन और चिरस्थायी आत्मसमर्पण | भौतिक परंपरा में शरीर और मन का आकर्षण और उस आकर्षण के रहने की अवधि तक विवाह |

यह दो दृष्टिकोण देर से चल रहे हैं | उनके अनुभव भी मीठे कड़ुवे अपने-अपने ढंग के प्रस्तुत होते रहते हैं | सो उनकी उपयोगिता - अनुपयोगिता के विवाद भी होते रहतें हैं और देर-सवेर में यह निष्कर्ष निकल ही आएगा कि दोनों में कौन-सा दर्शन उचित एवं उपयुक्त हैं |

एक तीसरा अति भ्रष्ट और अति निकृष्ट दर्शन कुछ ही समय से सामने आया है कि जहाँ से अधिक पैसा लड़की के साथ मिले ,वहीं का विवाह स्वीकार किया जाए |

इनमें न आत्मा तक पहुँचने का प्रश्न है और न वर कन्या का पारस्परिक पसंदगी की कसौटी पर कसने का अवसर हैं | पाश्चात्य देशों में कोर्ट शिप की पूरी-पूरी छूट हैं |
लड़की-लड़के एक-दूसरे को टटोलते रहते हैं और जब यह अंदाज लगा लेते हैं कि इसके साथ रहना ठीक है , तब शादी कर लेते हैं | प्रयोग में अनुकुलता नहीं बैठी तो दूसरी दूकान तलाशते हैं |
हर हालत में विवाह होता तभी है जब लड़की-लड़के अपना मन भर लेते हैं | यहाँ तो इसका भी प्रश्न नहीं हैं | आत्मा की बात तो भूला ही दी गई तो भारतीयता का तो अंत ही समझा जाए | पाश्चात्य भौतिकता के लिए भी यहाँ अवसर नहीं |
लड़का सिर्फ लड़की की शक्ल देखकर पसंदगी व्यक्त कर सकता हैं | फोटो 'फीचर' और 'कट' देख सकता हैं | लड़की के लिए तो वह रास्ता भी बंद हैं | उसकी पसंदगी का सवाल ही नहीं | बकरी गडरिये के हाथ बिक रही है या कसाई के हाथ , इसमें उसकी पसंदगी की क्या आवश्यकता ?
लड़की किस शक्ल-सूरत और किस आदत के लड़के के साथ ब्याही जा रही हैं , उसमें लड़की का फैसला आड़े नहीं आता | उसे न पूछा जाता हैं , न बताया जाता है | सो पाश्चात्य दृष्टि से भी वह आधा ही उपक्रम रह गया |
एक ने पसंद किया दूसरे ने नहीं , तो वह पाश्चात्य भी नहीं रहा | इसे भौतिक भी नहीं कह सकते | फिर लड़के ने भी तो केवल शकल देखी हैं | स्वभाव ,मन आदि की जानकारी पाने की यूरोप जैसी छुट उसे भी नहीं हैं | सो भारत की वर्तमान स्थिति को चौथाई भौतिक वाद कहना चाहिए |
लड़की को पूछा नहीं गया सो आधा भौतिकवाद रह गया | इसमें भी लड़के को शक्ल भर देखने को मिली , कोर्ट शिप का अवसर नहीं मिला सो उसे आधे का आधा अर्थात् चौथाई भौतिकवाद ही उसके भी पल्ले पड़ा |

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भारतीय परंपरा के अनुरूप दो आत्माओं के मिलन का आदर्श इतना महान हैं कि उसे चाहे तो घर ,तपोवन में संभव होने वाली योग-साधना कह सकते हैं |

इस आधार पर स्थापित दांपत्य संबंध को दुष्प्रवृत्तियों के निराकरण और सद्वृत्तियों के अभिवर्धन की एक सुव्यवस्थित प्रयोगशाला कह सकते हैं |
इस आदर्श के अनुरुप जिन्होनें अपनी विवाह प्रक्रिया का निर्धारण कर लिया होगा , वे इस लोक में स्वर्ग का आनंद भुगत रहें होंगे और परलोक में मोक्ष की संभावना का पथ प्रशस्त कर रहें होंगे |

आत्मवादी दर्शन में लाभ ही लाभ हैं |भौतिकवादी दर्शन में लाभ और हानि दोनों हैं | लाभ यह कि जब तक पसंदगी और सहमति हैं ,तब तक दोनों खूब मौज -मजे से रहेंगे |

जब गड़बड़ पैदा होगी तो जो शतरंज में कमजोर पड़ेगा वह ज्यादा जोखिम उठाएगा |इसलिए उसमें आधा लाभ और आधी हानि हैं |

एक तीसरा दर्शन अपने देश में चल पड़ा हैं ,उसे क्या नाम दिया जाए , उसके लिए सोचना पड़ेगा , पर जो भी नाम दिया जाएगा ऎसा होगा , जिससे अत्यंत घृणित , निकृष्ट , पतित और नृशंस मनोवृत्ति का परिचय मिलता हो |

वह दर्शन यह है कि किसी लड़की को तब लिया जाए जब उसके साथ बहुत-सा धन दहेज के रूप में मिलें | अपने समाज में यही 'अंधेर दर्शन' चल रहा हैं |
सुयोग्य ,सुशील ,रूपवती, गुणवती कन्या क्यों न हो , यदि उसके बाप के पास लड़के के अभिभावकों को संतुष्ट करने जितना धन नहीं हैं तो वह संबंध नहीं हो सकता | लड़की सर्वथा गौण है , उसकी विशेषताओं को कोई नहीं पूछता |

पूछ केवल एक ही बात की होती हैं कि विवाह में दहेज कितना मिलेगा ? जिसके पास धन देने को नहीं , उसकी लड़की को अविवाहित ही रहना पड़ेगा अथवा किसी बुढे के पल्ले उसे बँधना पड़ेगा | सुयोग्य घर-वर तो यहाँ पैसे से ही मिलते हैं |



पैसा साथ में न मिले तो कई अपने लड़के के लिए किसी लड़की को क्यों ले ? यहाँ तो खुलेआम नीलाम होते हैं | जो बोली बढाए उसके हाथ नीलाम छूटे | बढ-चढकर धन दिए बिना लड़की की शादी अच्छे घर में नहीं हो सकती |

इस तथ्य के कारण लड़कियाँ हर घर में अभिशाप बन रही हैं | उनका जन्मना ,विकसित होना माता-पिता तक की आँखों में चुभता हैं | जन्मते ही दहेपज की चिंता होने लगती है और अभिभावक उसे जुटाने लगते हैं ,

पर ईमानदारी से अपने गरीब देश में जहाँ व्यापार , नौकरी आदि में मुठ्ठी भर पैसे हाथ लगते हैं , प्रचुर धन कैसे प्राप्त हो ? इसके लिए बेईमानी , धूर्तता , ठगी , चोरी , रिश्वत जैसे घृणित तरीके ही अपनाने पड़ते हैं |


लड़की हर गृहस्थ में होती हैं | विवाह सभी को करना पड़ेगा और उसमें दहेज दिए बिना किसी का छुटकारा नहीं | ऎसी दशा में इन्हीं भ्रष्ट तरीकों को अपनाएं बिना गुत्थी किसी तरह नहीं सुलझ सकती | इस कुचक्र में सारा समाज भ्रष्ट और बेइमान होता चला जाता हैं |
बेईमान समाज की जो अवनति एवं दुर्गति होनी चाहिए , हो सकती हैं | उसका मूर्तिमान दृश्य हम अपने चारों ओर प्रस्तुत देख सकते हैं | इसके लिए जिम्मेदार हैं , वर और उसके अभिभावक |

दहेज प्रधान विवाहों का दर्शन किस तथ्य और तर्क पर आधारित है , उसका रहस्य किसी भी प्रकार समझ में नहीं आता | लड़की के पिता ने अपनी लड़की को पाला-पोसा , बड़ा किया , पढाया -लिखाया , वह उसे अगर किसी के घर मुफ्त में सेवा करने के लिए दे रहा हैं , तो किसी तरह उसका हक तो बनता है कि वह अपने अनुदान का बदला या मुआवजा माँगे |

लड़की वाला दहेज मांगे तो उसका तर्क , कारण अथवा आधार समझ में आता हैं और उसका कुछ औचित्य भी प्रतीत होता हैं , पर लड़के वाला किसी की सुयोग्य लड़की बिना मुल्य प्राप्त करने के अतिरिक्त उससे पैसा भी मांगे , इसका तर्क , कारण , आधार और औचित्य किसी भी प्रकार समझ में नहीं आता |
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धन विवाह का आधार बने ,इस मान्यता ने तो भारतीय अध्यात्मवाद को करोड़ो मील पीछे धकेल दिया | भौतिक दर्शन भी हजारों मील पिछड़ गया |

आत्मा , शरीर ,मन सब पीछे रह गए | पैसे के आधार पर विवात हो तो इसका अर्थ यह हुआ कि लकड़ी पत्थर की तरह लड़की-लड़के भी खरीदने बेचने की चीज़ हैं | धन के आधार पर ही उनका क्रय-विक्रय होना चाहिए , पर यह व्यापार दर्शन भी यहाँ फिट नहीं बैठता |
लड़की को यदि काष्ठ की बनी कठपुतली माना जाए , तो भी पैसा उसे देना चाहिए जो उसे खरीदे , घर ले जाए | यदि ऎसा होता तो उसे व्यापार दर्शन कह सकते थे और समझा जा सकता था कि मानव जीवन में आत्मा ,मन , गुण आदि का कोई मूल्य नहीं |
भेड़-बकरियों की तरह मनुष्यों की भी खरीद-बेच यहाँ चलती है , पर यह बात भी नहीं बनी | माँस विक्रय कसाई करते हैं | लड़की ,लड़का के माँस का मूल्य लिया जाए और उसकी खरीद बिक्री हो , ऎसी कुछ-कुछ संगति बैठती है , पर पूरी वह भी नहीं बैठती |
पूरी तब बैठती जब लड़के वाले पैसा लेकर अपना लड़का लड़की वाले को बेच देते और वह ससुराल में जाकर रहता और पशु चराता , घास छीलता | उसे मनुष्य बिक्री या कसाई-दर्शन कह सकते थे पर यह नामकरण भी तो वर्तमान सामाजिक स्थिति में 'फिट' नहीं बैठता |

विवाह का इतना घृणित आधार जितना हम तथाकथित धार्मिक , आस्तिक और सभ्य सुशिक्षित कहलाने वालों के बीच चल पड़ा हैं, उतना संभवतः जंगलियों में भी नहीं | असभ्य लोगों में खरीद , अपहरण के क्रम चलते रहते हैं ,

पर हम सभ्य लोगों ने तो जो गतिविधि अपनाई है , जो परम्परा बनाई हैं उसे तो क्या कहा जाए ? किस तराजू पर तोला जाएं ? उसके औचित्य , समर्थन में क्या तर्क प्रस्तुत किया जाए ? कुछ भी समझ नही आता|
फिर भी वह प्रथा कितनी गहरी जड़ जमाए बैठी है और आश्चर्य इस बात का हैं कि उसके उन्मूलन की आवाज नहीं उठती , वरन् विचारशील लोग भी उसी को अपनाए बैठे हैं | उसकी आलोचना करते हैं और उसी का अनुकरण | हे भगवान् हिंदु-समाज की इस विडंबना को क्या कहा जाए ? क्या नाम दिया जाए ?
Guestbook

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CAUTION :-

Smoking And Drinking Injurious To Health. (धुम्रपान एवं शराब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं)

आपके स्वस्थ एवं निरोगी जीवन और उज्जवल भविष्य के हित में---भक्ति सागर

भक्ति*सागर
द्वारा जनहित में जारी |
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इस चेतावनी के प्रस्तुतकर्ता :-

मेरी प्यारी बहन ::गीता देशमुख::
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